देश का पहला क्रांतिकारी, जिससे थर-थर कांपते थे अंग्रेज;knowledge
हिन्दुस्तान को आजाद हुए 71 साल हो चुके हैं. देश को आजाद कराने में लाखों लोगों ने अपनी जान की आहूती दे दी. हजारों लोगों ने अपने घर-द्वार छोड़ दिए. सैकड़ों लोगों ने अंग्रेजों के विरुद्ध हुई क्रांति का नेतृत्व किया. जुर्म आज तक ऐसे ही क्रांति वीरों पर एक सीरीज पेश कर रहा है, जो अंग्रेजों की नजर में अपराधी थे, लेकिन उनके द्वारा किए गए अपराध की वजह से देश को आजादी मिली. इस कड़ी में पेश है वासुदेव बलवंत फड़के की कहानी.
वासुदेव बलवंत फड़के की दास्तान
- वासुदेव बलवंत फड़के का जन्म 4 नवंबर, 1845 को महाराष्ट्र के रायगड जिले के शिरढोणे गांव में हुआ था.
- ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह का संगठन करने वाले फड़के भारत के पहले क्रांतिकारी थे. - उन्होंने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की विफलता के बाद आज़ादी के महासमर की पहली चिनगारी जलाई थी.
- प्रारंभिक शिक्षा के बाद उनके पिता चाहते थे कि वह एक दुकान पर काम करें, लेकिन उन्होंने पिता की बात नहीं मानी और मुंबई आ गए.
- उन्होंने जंगल में एक अभ्यास स्थल बनाया, जहां ज्योतिबा फुले और लोकमान्य तिलक भी उनके साथी थे. यहां लोगों को हथियार चलाने का अभ्यास कराया जाता था. - 1871 में उनको सूचना मिली की उनकी मां की तबियत खराब है, उन दिनों वो अंग्रेजों की एक कंपनी में काम कर रहे थे. वो अवकाश मांगने गए, लेकिन नहीं मिला.
- अवकाश नहीं मिलने के बाद भी फड़के अपने गांव चले गए, लेकिन तब तक मां की मृत्यु हो चुकी थी. इस घटना ने उनके मन में अंग्रेजों खिलाफ गुस्सा भर दिया.
- फड़के ने नौकरी छोड़ दी. अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति की तैयारी करने लगे. उन्हें आदिवासियों की सेना संगठित करने की कोशिश शुरू कर दी.
- 1879 में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की घोषणा कर दी. पैसे एकत्र करने के लिए कई जगहों पर डाके भी डालने शुरू किए.
- महाराष्ट्र के सात जिलों में वासुदेव फड़के का प्रभाव फैल चुका था. उनकी गतिविधि से अंग्रेज अफसर डर गए थे. कहा जाता है कि अंग्रेज उनसे थर-थर कांपते थे.
- अंग्रेज सरकार ने वासुदेव फड़के को जिंदा या मुर्दा पकड़ने पर 50 हजार रुपये का इनाम घोषित किया. अंग्रेज उनके पीछे पड़ गए.
- 20 जुलाई, 1879 को फड़के बीमारी की हालत में एक मंदिर में आराम कर रहे थे. उसी समय उनको गिरफ्तार कर लिया गया.
- उनके खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया और कालापानी की सजा देकर अंडमान भेज दिया गया. - 17 फरवरी, 1883 को कालापानी की सजा काटते हुए जेल के अंदर ही देश का वीर सपूत शहीद हो गया
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