बहुत पहले यानि कि मुगल बादशाह अकबर के जमाने की बात है,,एक गाँव में एक मुसलमान और एक जाट आमने-सामने रहते थे,,दोनों का भरा-पूरा परिवार था। मुसलमान और जाट में जैसे अक्सर होता है, छत्तीस का आंकड़ा रहता था।
सुबह-सुबह जाट अपने घर के आगे चबूतरे पर बैठ कर भजन करता था, तो उसी समय मुसलमान अपने चबूतरे पर बैठ कर ज़ोर-ज़ोर से कहता था कि '' खुदा की खुदाई खुदा ही जाने'' ये कुछ गलत भी नहीं था,,,पर पता नहीं क्यों जाट इस बात से चिड़ जाता था,,मुसलमान यह बात जानता था,तो वह जाट को चिढ़ाने के लिए ही ज़ोर-ज़ोर से बोलता था कि ''खुदा की खुदाई खुदा ही जाने''।
रोज-रोज यही बात सुनते-सुनते एक दिन जाट को गुस्सा आगया और जाट,, मुसलमान से बोला कि तेरे खुदा की खुदाई मैं जानूँ ,, बस मुसलमान तो इसी ताड़ में था ही ,तो वह बोला कि तू नहीं जानता खुदा कि खुदाई ,,पर जाट भी कम नहीं था ,वह बोला कि मैं जानता हूँ,,फिर क्या था दोनों में शर्त लग गयी, कि जो जीतेगा वह दूसरे के हल बैल सहित सभी पशु ले लेगा ।
एक दिन दोनों ,गाँव के कुछ लोगों को साथ लेकर, अपना फैसला कराने के लिए इलाके के काज़ी के पास गए। काज़ी ने दोनों की बात ध्यान से सुनी, फिर काज़ी ने जाट से कहा कि खुदा की खुदाई को तुम कैसे जानते हो,,,तो जाट ने कहा,, कि हुज़ूर मेरे साथ चलिये । जाट, काज़ी और सभी लोगो को लेकर एक झील के किनारे आया ,,और काज़ी से बोला कि हुज़ूर ये झील खुदा ने नहीं खुदाई है तो क्या इस मीयां के अब्बा ने खुदाई है ?
अब काज़ी भी पाशोपेश में पड़ गया । काज़ी ने काफी सोच-विचार कर अपना फैसला जाट के पक्ष में सुना दिया और मुसलमान को हल बैल सहित अपने सभी पशु चौधरी को सौपने का हुक्म भी दे दिया।
अब क्या था चोट खाया मुसलमान, जाट से बदला लेने के लिए मौका ढूँढने लगा। मीयां ने बहुत सोच-समझ कर अपने चबूतरे से बोलना शुरू किया कि ''मेरे मन कि मैं ही जानूँ''। जाट से फिर बर्दाश्त नहीं हुआ और जाट गुस्से में आकर बोल गया कि ''तेरे मन कि मैं भी जानूँ''। बस मीयां को तो इसी बात का इंतज़ार था,,मीयां ने सोचा कि आज ये फसा ,अब मैं अपना सारा हिसाब बराबर कर लूँगा।
मीयां बोला कि लगाएगा शर्त, तो जाट थोडा सोच कर बोला कि हाँ चल लगाले '' तेरे मन कि मैं भी जानूँ'' बस फिर क्या था शर्त एक बार फिर लग गयी कि जो जीतेगा वह वह अपने सारे खेत और घर दूसरे को दे देगा,,शर्त लगा कर मीयां भीतर ही भीतर बहुत खुश था कि अबकी बार जाट को मज़ा चखा दूंगा। मीयां बोला कि फैसले के लिए चलो काज़ी के पास पर जाट ने कहा कि ये फैसला काज़ी के यहाँ नहीं ये तो बादशाह अकबर के दरबार में ही होगा।
नियत समय पर कुछ गाँव के लोगों के साथ दोनों बादशाह के दरबार में हाजिर हो गए। उन दिनो बादशाह अकबर बहुत उदास रहते थे ,क्योंकि इतने इलाज,,धर्म-कर्म और दुआ के बाद भी उनके घर में किसी संतान ने जन्म नहीं लिया था,,,बादशाह अकबर अनमने से होकर ही दरबार में आते थे, खैर यह मुक़द्दमा भी बादशाह के सामने रखा गया । तो बादशाह ने जाट से कहा कि अगर तुम जानते हो तो बताओ मीयां के मन की बात।
तब जाट अपने दोनों हाथ जोड़ कर बोला कि हुज़ूर मीयां के मन में दिन रात एक ही बात रहती है कि, हमारे प्यारे बादशाह सलामत के घर में खुदा, एक चाँद सा बेटा देदे ,,जिससे कि हजूर का बंश आगे बढ़े और सल्तनत को उसका बारिस मिल जाये।
बादशाह ने मीयां कि तरफ देख कर पूछा कि अब तुम बताओ अपने मन की बात। मीयां को काटो तो खून नहीं ,मीयां ने मन ही मन सोचा कि अगर मैं कहता हूँ कि, मेरे मन में ये बात नहीं है,तो बादशाह अभी क्रोध में मेरा सिर कलम करवा देगा,,जान है तो जहान है,,ऐसा विचार कर मीयां ने कहा कि हुज़ूर यही है, मेरे भी मन की बात ,,ये जाट मेरे मन की बात सचमुच जानता है।
मीयां ने बादशाह के हुक्म के अनुसार अपने सारे खेत और घर चौधरी के हवाले किया और अपने परिवार के साथ गाँव छोड़ कर चला गया॥
---अनपढ़ जाट पढ़ा जैसा।
---और पढ़ा जाट खुदा जैसा॥
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें